Monday, August 19, 2013

अन्तराल

मैं ठीक समय पर पहुँच गयी थी. तुम तभी तभी ही पहुंचे थे.. café भरा हुआ था. एक कोने की टेबल खाली थी. सो वहीं जा बैठे.. कॉफ़ी का आर्डर दिया.
तुमने पूछा "कैसी हो."
"ठीक"
"बच्चे?"
"वो भी ठीक हैं"..."तुम्हारे ?
"अच्छे हैं"...
उसके बाद एक लम्बी चुप्पी..शब्द चुक गए हों जैसे.धीरे धीरे कॉफ़ी की चुस्कियां भरते रहे.. बीच बीच में नज़रें चुरा कर एक दुसरे को देख लेते. .तुम कितने थके लग रहे थे..ज़िन्दगी से ऊबे.. हताश.. निराश.. मैंने नोट किया जब तुम मिलने पे मुस्कुराये थे,तुम्हारी आँखों के किनारों पे लकीरें उग आई थीं..crows feet., पर मुस्कान वैसी ही थी खिली हुयी.. मुस्कुराते हुए तुम्हारे होंठ फैल कर आँखों को छू जाते थे अब भी.. तुम्हारे चेहरे पर और भी कई छोटी बड़ी लकीरों ने घर कर लिया था.. मेरी नज़रें उन सबकी कहानियां पढ़ रही थीं.. कुछ पूछने की या कहने की ज़रुरत ही कहाँ थी वहाँ..सब कुछ खुली किताब सा बिखरा पड़ा था..उन मोटे चश्मों के बीच से झांकती तुम्हारी आँखों में शहद अब भी लबालब भरा था..
प्याले खाली हो चुके थे. तुम ऊँगली से खाली प्याले को गोल गोल घुमाने लगे. फिर तुमने नज़रें उठा कर देखा..तुम्हारी नज़रें मेरे होंठों पर कुछ पल को ठहर गयीं. वो पल वहीं थम गया. वक़्त कुछ पल ठहर कर फिर आगे बढ़ गया..
तुमने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी में टाइम देखा.."चलना चाहिए"
..मैंने खुद को समेटा.. तुमने खुद को.. और बढ़ गए दोनों.. तुम उस ओर, मैं इस और..दोनों अपनी अपनी दुनिया की भीड़ में फिर से गुम जाने के लिए....इस सबके बीच पाप कहाँ था,. कोई समझाएगा मुझे.........Poonam Dogra


 

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